ख़ामोश हूं, निश्छल नहीं - हिंदी कविता | ट्रेंडिंग ज्ञान
ख़ामोश हूं, निश्छल नहीं,
कैसे मान लूं कोई हल नहीं।
इस दुनियां के कारोबार में,
ऐसा शख्स नहीं, जिसका काल नहीं।
ना उठा हो फायदा लाचारी का,
ऐसा कभी हुआ नहीं,
दम तोड देती है दिलेरी।
फिर क्या वे वापस उठे नहीं?
तो सुनते हैं आगे की कुछ साकारात्मक पंक्तियां...
उठें हैं वो, ख़ामोश हैं।
पास उनके भी लफ़्ज़ों के कोष हैं।
यूंही नहीं अनुचित को, मुनासिब वे दिखते नहीं।
बीत जाती है जिंदगी उनकी,
इस दिखावे के समाज में।
बदलते रंग समाज के,
गिरगिट भी अब शर्माता नहीं।
वो ख़ामोश है, निश्छल नहीं।
...........
तो कैसी लगी ये छोटी सी कविता इसे लिखा है ट्रेंडिंग ज्ञान के लेखक ने, कुछ कविता ऐसी होती है जो दिखती तो सरल है, होती भी सरल हैं लेकिन कुछ गहराइयां अपने अंदर समेटे हुए रहती है। इस कविता में मैंने समाज के किसी एक वर्ग के मनुष्य उनके मानसिकता और उनके इमोशंस को समेट के कुछ पंक्तियों में समेटने का कोशिश किया गया है।
धन्यवाद
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